केवल कर्म ही आपका अधिकार है, फल तो केवल विचार है
श्रीमद् भगवद् गीता
का सबसे चर्चित व प्रचलित श्लोक है
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु
कदाचन … अर्थात् कर्म करते चलो, फल की चिंता मत करो। हम इसे याद भी रखते हैं और जीवन का
जोड़-घटाना भी इससे
तय करने की कोशिश करते हैं लेकिन इसकी गहराई में नहीं जाते। हम अपने कर्म को सही साबित करने के
लिए विवाद भी करते हैं, फल की आशा भी करते हैं और आशानुरूप परिणाम नहीं मिलने पर परिस्थितियों
को कोसते भी हैं… जबकि यह सब निरर्थक है। वास्तव में मा फलेषु कदाचन का मतलब
है कि कर्म के दौरान या उसके बाद फल का विचार भी नहीं करना चाहिए, जो हमारा अधिकार
है वह सिर्फ कर्म है और वह हम कर चुके हैं।
अगर गहराई में जाकर देखें तो इसका वास्तविक अर्थ है कि कर्म
ही आपके अनुसार तय हो सकता है, जिसे आप शरीर, शब्द या विचार
से क्रियान्वित कर सकते हैं। यहां हमें जानना जरूरी है कि फल की चिंता नहीं करने का आशय
क्या है, इसका अर्थ है कर्मफल के बंधन से मुक्त हो जाना, जबकि हम फल की चिंता नहीं करने का मतलब समझते हैं कि जिनके
सामने या जिनके लिए कर्म किया है उनसे फल की अपेक्षा नहीं रखना। इसके बदले हम लगातार भगवान को अपना यह कर्म गिनाने लगते हैं। श्रीकृष्ण ने गीता में जिस कर्म की बात कही है उसका अर्थ है
कि कर्म से न तो कुछ प्राप्त करने की इच्छा होना चाहिए और न ही कुछ प्राप्त किए
हुए का रक्षण करने की अभिलाषा। यह केवल एक क्रिया होना चाहिए जो हमें वर्तमान परिस्थिति में
सही लग रही है।
हमारे साथ हुई हर अप्रिय घटना कर्मफल
नहीं होती। कई बार हमारे
साथ कुछ बुरा होने पर हम सोचने लगते हैं कि यह किसी बुरे कर्म का फल है, ऐसे में हम डर जाते हैं और यह भी सोचने लगते हैं कि कहीं कुछ
ओर बुरा न हो जाए। घबराहट में हम अपने कार्य पर ध्यान नहीं दे पाते और फिर हमारे
साथ कुछ अप्रिय हो जाता है तो हम मान लेते हैं कि हमारा तो समय ही खराब चल रहा है
जबकि यह गलत है। अधिकांश अप्रिय घटनाएं हमारे साथ इस कारण होती हैं क्योंकि हमारा
फोकस वर्तमान पर से हट गया है। कर्म का सही निर्णय लेने के लिए पक्षियों, नदियों और हवा
की तरह अपने विचारों को स्वछंद कर दें।
याद रखें वह हर कर्म सद्कर्म है जो आपको अंदर से मजबूत करे, प्रसन्न करे, जिस काम को करने के बाद आपकी ऊर्जा बढ़ने लगे, आप निडर हो जाएं और जिसके सार्वजनिक प्रदर्शन की चिंता आपको
कभी नहीं रहे, दूसरी ओर उस हर कर्म से बचना चाहिए जिसे करने बाद आपको गुस्सा
आए, आपका दिल दुखे, आपको डर लगे या
जिसके सार्वजनिक प्रदर्शन का भय आपको सताने लगे।
अब आपके मन में विचार आ सकता है कि कौन से कर्म करना चाहिए।
बस किसी कर्म को करने से पहले हमें
स्वयं से यह पूछना चाहिए कि जिस कार्य को हम करने जा रहे हैं इसमें हमारा ईरादा, आशय, नीयत, इच्छा, आकांक्षा, अभिलाषा, आसक्ति सकारात्मक हैं, इसमें किसी के
प्रति ईष्या, जलन, लालच, बदले आदी की भावना तो नहीं हैं। अगर इन कसौटियों पर हमारा कर्म सही
है तो हमें यह करना चाहिए। हमेशा याद रखिए
कि अगर आपकी नीयत अच्छी है तो नसीब कभी बुरा नहीं हो सकता।
आपकी अच्छाइयां..._
जवाब देंहटाएंबेशक अदृश्य हो सकती है..._
लेकिन इनकी छाप..._
हमेशा दूसरों के हृदय में_
विराजमान रहती है...!
बहुत बढ़िया.... आपकी नीयत अच्छी है तो नसीब कभी बुरा नहीं हो सकता।
जवाब देंहटाएंहमें सिर्फ़ कर्म ही करने है और वह भी फल प्राप्ति की आशा किए बिना। बहुत बढ़िया लेख 🙏🙏🙏🙏
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छे विचार है।इसी तरह लिखते रहो। शुभकानाएं।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लिखा है सुमित
जवाब देंहटाएंअच्छा लिखा है विचारों को भी पुन:नए रुप में देखने की जरुत है 👌
जवाब देंहटाएंSir Please Bachho ke liye kuch likhiye, teen age me bachhe kya kare. kese sahi disha me chalen.
जवाब देंहटाएंShaandaar
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